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द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते। तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dvā suparṇā sayujā sakhāyā samānaṁ vṛkṣam pari ṣasvajāte | tayor anyaḥ pippalaṁ svādv atty anaśnann anyo abhi cākaśīti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्वा। सु॒ऽप॒र्णा। स॒ऽयुजा॑। सखा॑या। स॒मा॒नम्। वृ॒क्षम्। परि॑। स॒स्व॒जा॒ते॒ इति॑। तयोः॑। अ॒न्यः। पिप्प॑लम्। स्वा॒दु। अत्ति॑। अन॑श्नन्। अ॒न्यः। अ॒भि। चा॒क॒शी॒ति॒ ॥ १.१६४.२०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:20 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (सुपर्णा) सुन्दर पंखोंवाले (सयुजा) समान सम्बन्ध रखनेवाले (सखाया) मित्रों के समान वर्त्तमान (द्वा) दो पखेरू (समानम्) एक (वृक्षम्) जो काटा जाता उस वृक्ष का (परि, सस्वजाते) आश्रय करते हैं (तयोः) उनमें से (अन्यः) एक (पिप्पलम्) उस वृक्ष के पके हुए फल को (स्वादु) स्वादुपन से (अत्ति) खाता है और (अन्यः) दूसरा (अनश्नत्) न खाता हुआ (अभि, चाकशीति) सब ओर से देखता है अर्थात् सुन्दर चलने-फिरने वा क्रियाजन्य काम को जाननेवाले व्याप्यव्यापकभाव से साथ ही सम्बन्ध रखते हुए मित्रों के समान वर्त्तमान जीव और ईश-परमात्मा समान कार्यकारणरूप ब्रह्माण्ड देह का आश्रय करते हैं। उन दोनों अनादि जीव ब्रह्म में जो जीव है वह पाप-पुण्य से उत्पन्न सुख-दुःखात्मक भोग को स्वादुपन से भोगता है और दूसरा ब्रह्मात्मा कर्मफल को न भोगता हुआ उस भोगते हुए जीव को सब ओर से देखता अर्थात् साक्षी है यह तुम जानो ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। जीव, परमात्मा और जगत् का कारण ये तीन पदार्थ अनादि और नित्य हैं। जीव और ईश-परमात्मा यथाक्रम से अल्प अनन्त चेतन विज्ञानवान् सदा विलक्षण व्याप्यव्यापकभाव से संयुक्त और मित्र के समान वर्त्तमान हैं। वैसे ही जिस अव्यक्त परमाणुरूप कारण से कार्य्यरूप जगत् होता है वह भी अनादि और नित्य है। समस्त जीव पाप-पुण्यात्मक कार्यों को करके उनके फलों को भोगते हैं और ईश्वर एक सब ओर से व्याप्त होता हुआ न्याय से पाप-पुण्य के फल को देने से न्यायाधीश के समान देखता है ॥ २० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यौ सुपर्णा सयुजा सखाया द्वा जीवेशौ समानं वृक्षं परिषस्वजाते तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति। अन्योऽनश्नन्नभिचाकशीतीति यूयं वित्त ॥ २० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्वा) द्वौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (सुपर्णा) शोभनानि पर्णानि गमनागमनादीनि कर्म्माणि वा ययोस्तौ (सयुजा) यौ समानसम्बन्धौ व्याप्यव्यापकभावेन सहैव युक्तौ वा तौ (सखाया) मित्रवद्वर्त्तमानौ (समानम्) एकम् (वृक्षम्) यो वृश्च्यते छिद्यते तं कार्यकारणाख्यं वा (परि) सर्वतः (सस्वजाते) स्वजेते आश्रयतः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (तयोः) जीवब्रह्मणोरनाद्योः (अन्यः) जीवः (पिप्पलम्) परिपक्वं फलं पापपुण्यजन्यं सुखदुःखात्मकभोगं वा (स्वादु) (अत्ति) भुङ्क्ते (अनश्नन्) उपभोगमकुर्वन् (अन्यः) परमेश्वरः (अभि) (चाकशीति) अभिपश्यति ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र रूपकालङ्कारः। जीवेशजगत्कारणानि त्रयः पदार्था अनादयो नित्याः सन्ति। जीवेशावल्पानन्तचेतनविज्ञानिनौ सदा विलक्षणौ व्याप्यव्यापकभावेन संयुक्तौ मित्रवद्वर्त्तमानौ स्तः। तथैव यस्मादव्यक्तात्परमाणुरूपात्कारणात्कार्यं जायते तदप्यनादि नित्यं च। जीवास्सर्वे पापपुण्यात्मकानि कर्माणि कृत्वा तत्फलानि भुञ्जत ईश्वरश्चैकोऽभिव्यापी सन् न्यायेन पापपुण्यफलदानात् न्यायाधीश इव पश्यति ॥ २० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात रूपकालंकार आहे. जीव, परमात्मा व जगाचे कारण हे तीन पदार्थ अनादी, नित्य आहेत. जीव व ईशपरमात्मा यथाक्रमाने अल्प, अनन्त, चेतन, विज्ञानवान सदैव विलक्षण व्याप्यव्यापक भावाने संयुक्त व मित्राप्रमाणे आहेत. तसेच ज्या अव्यक्त परमाणूरूपी कारणापासून कार्यजगत बनते तेही अनादि व नित्य आहे. संपूर्ण जीव पाप-पुण्यात्मक कार्ये करून त्यांचे फळ भोगतात व ईश्वर सर्वत्र व्याप्त असून न्यायपूर्वक पाप-पुण्याचे फळ देणारा न्यायाधीश आहे. ॥ २० ॥